Monday, December 30, 2019

मेरी महबूबा





















मेरी महबूबा

चाही थी एक महबूबा, वह   मिली, ऐसी मिली,
दिन रात गूंजती है आवाज़ उसकी मेरे माहौल में,
किन्तु वह बोलती कुछ नहीं है।

उसकी चाहत जाती है बहुत दूर तक
कोई जगह नहीं है उसके बिना,
मैं कुछ कहूँ या ना कहूँ,
किन्तु वह कुछ बोलती नहीं है।

योन तो मुलाक़ात भी कभी नहीं हुई,
कोई पल नहीं होता जब वह मेरे साथ ना हो,
हाथ थामे चले जाते हैं दूर तक,
किन्तु वह बोलती कुछ नहीं है।

रात ही की बात है, उसने पुकारा मुझे ख्वाब में,
अच्छा लगा उसको पास पाकर
किन्तु वह बोलती कुछ नहीं है।

काली घटा सी उसकी ज़ुल्फ़ें ढके रहती हैं मेरे चाँद को,
निमंत्रण है उसकी देह की भाषा में
किन्तु वह बोलती कुछ नहीं है।

चाहता बहुत हूँ वह मुझसे कुछ कहे प्यार से प्यार के लिए,
ताकि मेरा जीवन सफल हो जाए
किन्तु वह बोलती कुछ नहीं है।

नहीं, वह गूंगी नहीं है, बहुत बतियाती है
सहेलियों से, अपने छात्रों से,
मुझसे बस प्यार का इज़हार है,
किन्तु वह बोलती कुछ नहीं है।



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