लो आ गए हम आपके गाँव में, नदिया किनारे पेड़ की छाँव में।
आपकी शरण में हम आ गये हैं, स्वस्थ सार्थक कर्म की चाह में।
हमारे शहर में, पानी ही नहीं, हवा भी नहीं है।
जीवन ना सहज, पल-पल समस्या गहन हो रही है।
गाँव के पशु वाहन आहीस्ता, मिलती शान्ति यहीं।
स्त्री पुरुष परिश्रम करते हैं, हो पाती क्लान्ति नहीं।
किसान यहां हैं, मज़दूर भी है, नहीं कोई किसी के दांव में।
लो आ गए हम आपके गाँव में, नदिया किनारे पेड़ की छाँव में।
शहर में नहीं ज़मीं कहीं, आसमां भी नहीं होता।
सूख गया बचपन सारा, जोश जवानी है सोता।
गाँव गाँव घर का आँगन, ज़मीं आसमां का घर है।
बच्चे अब भी हँसते हैं, युवा पसीने में तर हैं।
गाँव का जीवन, स्वतः संचालित, सागर लहरों पर बहती नाव में।
लो आ गए हम आपके गाँव में, नदिया किनारे पेड़ की छाँव में।
कृत्रिम होते गाल लाल,१४ चश्मा चमचम आँखों पर।
शहरी धरती पथरीली, चरण छमछम छालों पर।
गाँव की भूमि नरम धूल, ओस बिखेरे मोती है।
देह जब धूल धूसरित, चन्दन सुगंध होती है।
चलो छोड़ें शहर, बस जाएँ यहीं, चलन सामर्थ्य उगे पुनः पाँव में।
लो आ गए हम आपके गाँव में, नदिया किनारे पेड़ की छाँव में।
शहरी प्रभाव में रूप मानव का हर क्षण बदल रहा।
कद में कमी उदार उदर, कपाल कुपोषित हो रहा।
मल मूत्र विसर्जन विलम्ब, पद चलन दूभर कर दिया।
चिन्तनशून्य मस्तिष्क ने, अर्थहीन शब्द कर दिया।
चिन्तनशून्य मस्तिष्क ने, अर्थहीन शब्द कर दिया।
बौद्धिक प्रकाश में महामानव उगे, शेष रहें बौद्धिक छाँव में।
लो आ गए हम आपके गाँव में, नदिया किनारे पेड़ की छाँव में।
आपकी शरण में हम आ गये हैं, स्वस्थ सार्थक कर्म की चाह में।