Thursday, October 24, 2019

अनायास ही उंगली छू गई



अनायास ही उंगली छू गई 

हुई थीं सुबह में जो आँखें चार 
आँखों में भरा था प्यार बेशुमार,
संवाद भी कोई नहीं हुआ था 
किन्तु मैं उसका घर जानता था। 
अब जब ज़िन्दगी की दुपहरी गयी 
यों अनायास ही उंगली छू गई। 

ज़िन्दगी नीरस सिसक रही है 
पीड़ा मन में कसक रही है 
मुलाक़ात होती जो एक बार 
देखता रूबरू क्या है प्यार।
जब साहस किया तो रूह गई 
यों अनायास ही उंगली छू गई।   
  
यूँ कोई खास मक़सद नहीं था 
उठे कदम पहुंचा मैं वहीँ था। 
बीती सदी आधी, देखा मुझको 
याद आयी लक्ष्मण रेखा उसको।
वह भी मेरी तरह ही सहमी हुई, 
यों अनायास ही उंगली छू गई।   

उसके घर में मैं चुप बैठा रहा,
सोच रहा था मैं क्यों आया यहां। 
तभी दो हाथ मेरा स्वागत किये 
मुझसे जलपान का आग्रह लिये।
मेरे उठे हाथ नज़र झुकी रही 
यों अनायास ही उंगली छू गई।

यों तो कुछ विशेष नहीं घटा,
किन्तु मन में एक बवंडर उठा 
वह सहमी सी वहां से चली गई, 
चला आया मैं, आत्मा मर गई। 
जी तो रहा हूँ ज़िन्दगी चू गई 
यों अनायास ही उंगली छू गई। 

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